संत कबीर दास जी का जन्म लहरतारा (बनारस) में एक मुस्लिम परिवार में हुआ था। पेशे से कबीर दास जी जुलाहे का काम करते थे। कशी घाट के श्री रामानंद जी, संत कबीर दस जी के गुरु थे । संत कबीर ने धर्म के झूठे आडंबरों का भरपूर विरोध किया, फिर चाहे वो हिंदू धर्म हो या मुसलमान धर्म। कबीर दास जी एक धर्मनिरपेक्ष और इसलिए उनके शिष्य और अनुयायी कबीर पंथी कहलाए। हालांकि वह बहुत ज्यादा पढ़े लिखे तो नहीं थे, लेकिन इसके बावजूद भी वे अपने युग के एक बड़े समाज सुधारक माने जाते हैं। संत कबीर दस जी ने हज़ारों दोहे और रचनाएं लिखी जो कबीर वाणी के रूप में प्रसिद्ध हुई।
कबीर दास के दोहे बड़े सरल और आम लोगों के समझ में आने वाले थे। और शायद इसलिए कबीर के दोहे इतने प्रसिद्द हुए। और आज भी कबीर के दोहे हमारे घरों में गाए जाते हैं, और हम सब इनसे प्रेरणा पाते हैं। आज हम संत कबीर दास के कुछ प्रसिद्ध दोहे भावार्थ के साथ आप से साझा करने वाले हैं । संत कबीर के दोहे हर परिस्थिति में हमारा पथ प्रदर्शक बन सकती है। तो आइये, कबीर दस के प्रसिद्ध दोहे भावार्थ के साथ (Kabir Das Ke Dohe) पढ़ते हैं और उन से प्रेरणा लेते हैं
कबीर दास जी के सबसे प्रसिद्ध दोहे हिंदी में अर्थ सहित
ऐसी वाणी बोलिए मन का आपा खोय ।
औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होय ।।
दोहे का अर्थ: हम सब अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में कई बार ऐसा कुछ बोल जाते हैं जो शायद हमें नहीं बोलना चाहिए। अपने दफ्तर में, अपने सहयोगियों के साथ कभी कभार ऐसा कुछ बोल जाते हैं जिससे सामने वाले को तो तकलीफ होती ही है, लेकिन हम खुद भी बहुत पछताते हैं। कबीर दास जी के सबसे चर्चित और प्रसिद्ध दोहों में से एक इस दोहे में इस समस्या का बड़ा आसान सा हल है। कबीर कहते हैं कि – हमें बोलते समय अपने भीतर के अहंकार और घमंड को त्याग कर ऐसी भाषा बोलनी चाहिए जो दूसरों को शीतलता का अनुभव तो कराए ही, साथ में खुद को भी शीतल करे।
गुरु गोविंद दोउ खड़े, काके लागूं पाँय ।
बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो मिलाय॥
दोहे का अर्थ: संत कबीर दास जी के इस दोहे का अर्थ बहुत गहरा है क्योंकि इस दोहे में संत कबीर दास जी गुरु और ‘गोविन्द’ अर्थात भगवान की तुलना की है। गुरु गोविन्द दोउ खड़े, काके लागूं पाँय? अर्थात अगर गुरु और भगवान दोनों खड़े हैं तो किसके पाँय लागूं ? बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो मिलाय – अर्थात संत कबीर दास जी गुरु को धन्यवाद करते हैं की आप के कृपा से ही और आप दिए हुए शिक्षा और ज्ञान से ही मुझे भगवान से मिलने का रास्ता मिला। तो इसका अर्थ यह हुआ की गुरु और भगवान में गुरु का स्थान प्रथम है। क्योंकि गुरु ही आशीर्वाद से हमें भगवान की प्राप्ति हो सकती है।
बड़ा भया तो क्या भया, जैसे पेड़ खजूर ।
पंथी को छाया नहीं फल लागे अति दूर ।।
दोहे का अर्थ: संत कबीर दास जी अपने इस दोहे में कहते हैं कि केवल बड़ा होने से कुछ नहीं होता अगर आप बड़े हो कर भी किसी को फायदा नहीं पहुंचा सके, किसी के काम नहीं आ सके, तो ऐसे बड़े होने का कोई अर्थ नहीं। ऐसे बड़े होना खजूर के पेड़ के समान है जो बेशक बहुत बड़ा और लंबा होता है। लेकिन ये लंबा और बड़ा पैर किसी राहगीर को छाया भी नहीं दे सकता और ना ही आसानी से कोई खजूर के फल को खा सकता है। अतः हमें सिर्फ बड़ा नहीं बलकि ऐसा होना चाहिए की हम दूसरों को भी दे सकें।
निंदक नियेरे राखिये, आँगन कुटी छावायें ।
बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करे सुहाए ।।
दोहे का अर्थ: जब भी कोई हमारी बुराई करता है तो हम में से ज्यादातर लोग उसको दिल से लगा बैठते हैं। और ये स्वाभाविक है, आखिर अपनी बुराई सुनना किसे पसंद आएगा। ऐसे में संत कबीर दास जी का यह प्रसिद्ध दोहा आपका मार्गदर्शन करता है। अपने इस दोहे में संत कबीर दास जे कहते हैं कि निंदक अर्थात हमेशा दूसरों की बुराइयां करने वाले लोग, उनको को हमेशा अपने पास रखना चाहिए। क्यूंकि ऐसे लोग अगर आपके पास रहेंगे तो वे आपकी बुराइयाँ और गलतियां आपको बताते रहेंगे। जिस तरह तन की गंदगी को हम पानी और साबुन से साफ़ करते हैं, ये निंदक आप की गलतियां गिना कर आप को उसे सुधारने का मौका देते हैं और इस से आपका स्वाभाव और सीतल हो जाता है।
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय।
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय।।
दोहे का अर्थ: जल्दी फल पाने की चाह किसे नहीं होती ? और कई बार तो हम जल्दी निराश होकर भी बैठ जाते हैं और ऐसे में संत कबीर दास जी का यह दोहा आपको धैर्य का पाठ पढ़ाता है। कबीर दास जी कहते हैं की धैर्य बहुत जरुरी है क्योंकि मन में धीरज रखने से ही सब कुछ होता है। जैसे अगर कोई माली किसी पेड़ को सौ घड़े पानी से सींचे, तब भी उस पेड़ पर फल एक निश्चित समय के बाद और उपुक्त ऋतु आने पर ही लगेगा। अतः हमें हर काम धैर्य के साथ करना चाहिए।
मूरख संग न कीजिए ,लोहा जल न तिराई।
कदली सीप भावनग मुख, एक बूँद तिहूँ भाई ॥
दोहे का अर्थ: हमें बचपन से बताया जाता है की अच्छी संगत करो क्योंकि संगत का हमारे स्वभाव पर बहुत ही गहरा प्रभाव पडता है। कबीर दास जी के इस दोहे में अच्छे संगत की ही चर्चा की गयी है। कबीर दास जी कहते हैं की मूर्ख से सांगत मत करो। मूर्ख व्यक्ति एक लोहे के सामान है जो जल में तैर नहीं सकता। और संगति का प्रभाव हमारे ऊपर ऐसा पड़ता है कि आकाश से गिरा एक बूँद अगर केले के पत्ते पर गिरे तो कपूर, सीप के ऊपर गिरे तो मोती और सांप के मुख में परे तो विष बन जाता है। इसलिए हमेशा अच्छे और गुनी लोगों का सत्संग करना चाहिए।
करता था तो क्यूं रहया, जब करि क्यूं पछिताय ।
बोये पेड़ बबूल का, अम्ब कहाँ ते खाय ॥
दोहे का अर्थ:कबीर दास जी के इस दोहे में जीवन का सार छिपा है। हम सब जानते हैं की जीवन में हम जैसा करते हैं वैसा पाते हैं। और कबीर दास जी ने अपने इस दोहे में उसी कर्म की प्रधानता की बात कही है। संत कहते हैं की जब तुम करता हो तो अपना कर्म करो, प्रतीक्षा करने से कुछ हासिल नहीं होगा। और जब कर्म करो, तो ऐसा, की बाद में पछताना ना परे। क्योंकि हमें हमारे कर्म के अनुरूप ही फल मिलता है – जैसे अगर हम बबूल का पेड़ लगाएंगे तो तू उस पर आम नहीं फल सकता, बाबुल के काटें ही मिलेंगे। इसलिए हम जैसा परिणाम चाहते हैं, हमारे कर्म भी उसी के अनुरूप होने चाहिए।
मनहिं मनोरथ छांडी दे, तेरा किया न होइ ।
पाणी मैं घीव नीकसै, तो रूखा खाई न कोइ ॥
दोहे का अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं की हमेशा हमारे मन का नहीं होता और इसलिए मन की इच्छा छोड़ दो, परिणाम हमेशा वैसा ही नहीं होगा जैसा तुम चाहते हो। यदि सिर्फ हमारे मन की होती तो जल से घी निकल आते और कोई रूखी रोटी नहीं खता। दोस्तों हमारे जीवन में भी हमारे साथ कई बार ऐसा ही तो होता है , जब हमारे लाख चाहने के वावजूद भी परिणाम वैसा नहीं होता जैसा हमारा मन चाहता है। ऐसे में घबराने की जरुरत नहीं है – बस फिर से एक बार कोसिस करने की जरुरत होती है।
बुरा जो देखन मैं चला बुरा न मिलिया कोय ।
जो घर देखा आपना मुझसे बुरा न कोय॥
दोहे का अर्थ: दूसरों में बुराई देखना हममें से ज्यादातर लोगों का स्वभाव है। हमें अपनी बुराई भले ना दिखाई दे, लेकिन दूसरों की बुराई बड़ी आसानी से दिखाई दे जाती है। कबीर दास जी के प्रसिद्ध दोहे में से एक यह दोहा है, जिसमें वो कहते हैं की जब वो एक बुरे व्यक्ति की खोज करने निकले,तो उन्हें कोई बुरा व्यक्ति नहीं मिला। लेकिन जब उन्होंने अपने अंदर झाँका तो पाया कि उनसे ज्यादा बुरा तो कोई है ही नहीं। अर्थात हमें सिर्फ दूसरे की बुराई नहीं खोजनी चाहिए क्योंकि जब हम अपने अंदर झांकते हैं तब पता चलता है की बुराई तो अपने अंदर ही है।
ऊंचे कुल क्या जनमिया जे करनी ऊंच न होय।
सुबरन कलस सुरा भरा साधू निन्दै सोय ॥
दोहे का अर्थ: इंसान अपने जन्म से नहीं बल्कि अपने अच्छे कर्मों से जाना जाता है। और कबीर दास जी के इस दोहे में इसी बात का जिक्र है। वो कहते हैं कि अगर आपका कर्म और करनी उच्च कोटि का नहीं है तो ऊँचे कुल में जन्म लेकर भी कोई लाभ नहीं क्योंकि भले ही कलश सोने का हो, लेकिन उस में गंगाजल की जगह अगर मदिरा रखा जाए तो उसकी निंदा ही होगी। जिस तरह मदिरा को सोने के कलश में रखने से भी वह मदिरा ही कहेगा उसी तरह ऊँचे कुल में जन्म लेने पर भी अगर आपके कर्म अच्छे नहीं हुए तो इसका कोई लाभ नहीं।
कबीरा खड़ा बाज़ार में, मांगे सबकी खैर।
ना काहू से दोस्ती,न काहू से बैर।।
दोहे का अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि मैं तो संसार के हरेक व्यक्ति की खैर चाहता हूँ। अगर मेरी किसी से दोस्ती ना हो तो किसी से दुश्मनी भी न हो। मैं सबका भला चाहता हूँ और किसी का बुरा नहीं चाहता। देखा जाए तो कबीर के इस साधारण लगने वाले दोहे में कितना मूढ़ ज्ञान छिपा है। अगर हम में से हर कोई अपने जीवन में ऐसा सोच रखे तो ये दुनिया और भी खूबसूरत हो जाएगी। है ना ?
तिनका कबहुँ ना निन्दिये, जो पाँवन तर होय ।
कबहुँ उड़ी आँखिन पड़े, तो पीर घनेरी होय।।
दोहे का अर्थ: बहुत बार हम अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में चीज़ों को छोटा मानकर उसकी निंदा करते हैं या उसका मजाक उड़ा देते हैं। लेकिन कबीर के इस दोहे में वो कहते हैं की एक छोटा सा तिनका जो आपके पावों के नीचे दबी होती है उसकी भी निंदा नहीं करनी चाहिए। क्योंकि अगर एक छोटा सा तिनका उर कर आपके आँखों में आ जाए तो आपको काफी गहरी पीड़ा होगी। अर्थात किसी को छोटा मानने की गलती करने से हमें बचना चाहिए। कबीर के इस दोहे में है ना एक अनमोल सीख ?
यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान ।
शीश दियो जो गुरु मिले, तो भी सस्ता जान ।।
दोहे का अर्थ: संत कबीर दास जी का यह प्रसिद्ध दोहा भी गुरु की महिमा मंडन करता है। इस दोहे में संत कबीर कहते हैं की – ये जो तन है, जिस पर हमें इतना गुरुर है, वह एक विष से व्याप्त पौधे के समान है। और गुरु जो होते हैं वो एक अमृत के खान के समान है। शीश दियो जो गुरु मिले, तो भी सस्ता जान – अर्थात अगर अपना शीश देकर भी अगर आपको गुरु रूपी अमृत का खान मिल जाए तो यह एक सस्ता सौदा है। गुरु रूपी खान एक अनमोल दौलत है जिसका सौदा किसी कीमत पर भी सस्ता है।
कबीर संगति साध की, कड़े न निर्फल होई ।
चन्दन होसी बावना, नीब न कहसी कोई ॥
दोहे का अर्थ: कबीर कहते हैं कि साधु की संगति कभी निष्फल नहीं जाती। जैसे चन्दन का वृक्ष यदि छोटा या बौना भी होगा तो भी वह खुशबू ही फैलता है। और छोटे होने के कारण कोई उसे नीम का वृक्ष नहीं कहेगा, या वो करवा नहीं हो जाएगा। अतः हमें हमेशा अच्छी संगत करनी चाहिए और क्योंकि ऐसी संगती कभी विफल नहीं जाती।
साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय।
सार-सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय।।
दोहे का अर्थ: अपने जीवन में बहुत बार हमें साधु संतों पर यकीन नहीं होता।कई बार ये दुविधा रहती है की या सच में ये इंसान साधु संत है या बस ऐसे ही। संत कबीर ने अपने इस दोहे में इसी बात की चर्चा की है कि साधु कैसा होना चाहिए और उसका स्वभाव किस तरह का होना चाहिए। कबीर दास जी कहते हैं कि साधु का स्वभाव बिल्कुल अनाज साफ़ करने वाला सूप के समान होना चाहिए। जिस तरह सूप अन्न को बचा लेता है और धूल को अलग कर देता है , एक साधु का भी यही काम है की वो सार्थक को बचा ले और निरर्थक को उड़ा दे। और जिस व्यक्ति का स्वभाव ऐसा है, निश्चय ही वह एक सज्जन है।
जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान,
मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान।
दोहे का अर्थ: कबीर दास जी अपने समय के एक महान विचारक थे और अपने इस प्रसिद्ध दोहे में कबीर दास जी कहते हैं कि साधु से उसकी जाती मत पूछिए, अगर कुछ पूछना है तो ऐसा पूछिए जिससे आपको उसके ज्ञान का पता चले। साधु कितना ज्ञानी है ये महत्वपूर्ण है ना की उसकी जाति। ठीक उसी तरह जिस तरह मोल होती है तलवार की, उसके म्यान यानी की ढकने वाले खोल की कीमत नहीं देखी जाती।
अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप।
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।।
दोहे का अर्थ: जरूरत से अधिक कुछ भी अच्छा नहीं होता – और यही कहना है कबीर के इस दोहे का, की ना तो अधिक बोलना अच्छा है, ना ही अधिक चुप रहना। ठीक वैसे ही जिसे की ना अधिक वर्षा अच्छी होती है और ना ही अधिक धुप। संतुलन बहुत ही आवश्यक है और इसलिए हमें अति से बचना चाहिए।
जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ।
मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।।
दोहे का अर्थ: वो कहते हैं ना की कोशिशें ही कामयाब होती हैं – अगर कोई कोसिस ही ना करे तो उसे कामयाबी क्या ख़ाक मिलेगी? कबीर दास जी के इस दोहे में जीवन में सफलता पाने का एक मूल मंत्र छुपा है। कबीर दास जी कहते हैं, जब गहरे पानी में उतरकर एक गोताखोर गोता लगाता है तो वो खाली हाथ नहीं लौटता, उसके हाथ कुछ ना कुछ जरूर लगता है। लेकिन अगर डूबने के डर से, वो किनारे पर ही बैठा रहे तो उसके हाथ क्या लगेगा ? कुछ भी नहीं। इसलिए अगर आप जीवन में कुछ पाना चाहते हैं, बनना चाहते हैं तो आपको कोशिश करनी ही होगी। है ना ये एक अनमोल ज्ञान ?
दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार।
तरुवर ज्यों पत्ता झड़े, बहुरि न लागे डार।।
दोहे का अर्थ: संत कबीर दास जी एक महान विचारक थे और इसलिए वो अपने इस दोहे में कहते हैं – की इस ब्रह्माण्ड में मनुष्य जन्म बहुत ही दुर्लभ है,और ये शरीर बार बार नहीं मिलने वाला। जिस तरह पेड़ से पत्ता गिरने के बाद वापस डाल पर नहीं लगता, ठीक उसी तरह ये मानव शरीर हमें बार बार नहीं मिलेगा। और इसलिए जब यह मानव जन्म मिला है तो कुछ ऐसा करिए की शरीर के जाने के बाद भी आप को लोग याद रखें। कितना गूढ़ ज्ञान है कबीर के इस दोहे में?
बोली एक अनमोल है, जो कोई बोलै जानि।
हिये तराजू तौलि के, तब मुख बाहर आनि।।
दोहे का अर्थ: क्या आप किसी के भाषा से प्रभावित हुए हैं ? आपकी भाषा और आपकी बोली अनमोल है। अगर आप सही तरीके से बात करना जानते हैं तो आप अपनी भाषा से किसी को भी प्रभावित कर सकते हैं। कबीर दास जी के इस दोहे में बोली के अनमोल होने की बात कही गई है। वे कहते हैं की जब हम सोच समझ कर, मन में विचार कर के बात करते हैं तो हमारी बोली अनमोल हो जाती है। वो कहते हैं ना इंसान को सोच समझ कर बोलना चाहिए – बस यही अर्थ है कबीर के इस दोहे का।
माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर।
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।।
दोहे का अर्थ: संत कबीर दास जी धार्मिक ढकोसलों के खिलाफ थे और यही बात उन्होंने अपने इस दोहे में कही है कि भले आप सालों साल माला फेरते रहें, लेकिन सिर्फ हाथ में माला लेकर जपते रहने से आपके के मन का फेर शांत नहीं हो सकता। मन के फेर या हलचल को शांत करने के लिए मन को बदलना बहुत जरूरी है।
जब मैं था तब हरि नहीं अब हरि है मैं नाहीं ।
प्रेम गली अति सांकरी जामें दो न समाहीं ॥
दोहे का अर्थ: अहंकार इंसान को नष्ट कर सकता है और जब मन से मैं का अहंकार निकल जाता है तो सब कुछ बदल जाता है। संत कबीर दास जी अपने इस दोहे में कटे हैं की – जब तक मन में अहंकार था तब तक ईश्वर का साक्षात्कार नहीं हो पाया। लेकिन, जब मन का अहम समाप्त हुआ तब प्रभु मिल गए। जब ईश्वर का साक्षात्कार हुआ तब अहंकार स्वत: नष्ट हो गया। अर्थात ईश्वर की सत्ता का बोध तभी आता है जब मन अहंकार मुक्त हो जाता है। वे कहते हैं की ये प्रेम की जो गली है ये बहुत संकरी है, और प्रेम की इस संकरी गली में एक ही समा सकता है -अहम् या परमात्मा ! परमात्मा की प्राप्ति के लिए अहंकार का त्याग आवश्यक है।
दोष पराए देखि करि, चला हसन्त हसन्त।
अपने याद न आवई, जिनका आदि न अंत।।
दोहे का अर्थ: कुछ लोगों को दूसरे की गलती देख बहुत हसीं आती है, पर उन्हें अपना दोष दिखाई नहीं देता। ऐसे देखा जाए तो ये एक आम स्वभाव है। कबीर अपने इस दोहे में कहते हैं कि मनुष्य दूसरे का c देख कर हँसता है, जबकि उसे अपना दोष नहीं दिखता जिसका ना कोई आदि है और न ही अंत।
जब गुण को गाहक मिले, तब गुण लाख बिकाई।
जब गुण को गाहक नहीं, तब कौड़ी बदले जाई।।
दोहे का अर्थ: आपने वो कहावत तो सुनी ही होगी – हीरे की असली कीमत जौहरी ही जनता है? संत कबीर के इस दोहे का अर्थ भी कुछ ऐसा ही है। कबीर दस जी कहते हैं गुण की कीमत तभी होती है जब उस गुण को पहचानने वाला मिलता है। अगर गुण को पहचानने वाला ना मिले तो ऐसा गुण कौड़ी के भाव चली जाती है । ठीक उसी तरह जैसे हीरे की पहचान एक जौहरी ही कर पता है।
कबीर यह तनु जात है सकै तो लेहू बहोरि ।
नंगे हाथूं ते गए जिनके लाख करोडि॥
दोहे का अर्थ: यह शरीर एक न एक दिन नष्ट होने वाला है और इसलिए इसका जतन कर लो। हम अपने जीवन में कितना कुछ करना चाहते है रुपए पैसे धन सम्पति सब इक्कठा करने के चक्कर में, अपने शरीर को नष्ट होने देते हैं। कबीर दास जी कहते हैं की शरीर का ख्याल रखो क्योंकि कितना भी लाख करोड़ रुपए पैसे आभूषण कुछ भी शरीर के साथ नहीं जाने वाला। इंसान जा जब इस शरीर को त्याग कर जाता है तो नंगे हाथ ही जाता है , इसलिए इस शरीर का जतन करो।
झूठे को झूठा मिले, दूंणा बंधे सनेह।
झूठे को साँचा मिले तब ही टूटे नेह ॥
दोहे का अर्थ: क्या आपके साथ कभी ऐसा हुआ की कोई आपको बहुत जल्दी बहुत पसंद आ गया हो या फिर कोई आपको एकदम से पसंद ही ना हो ? हम सब के साथ ऐसा होता है और कबीर दास जी ने अपने इस दोहे में इसी उलझन का हल दिया है। वो कहते हैं कि, जब एक झूठे इंसान को एक दूसरा झूठा इंसान मिलता है तो उनका स्नेह यानी उनकी दोस्ती दोगुनी हो जाती है। लेकिन जब किसी झूठे इंसान को एक सच्चा इंसान मिल जाता है तो उनकी दोस्ती या उनका स्नेह जल्दी ही टूट जाता है। जाहिर सी बात है – जिस व्यक्ति का जैसा स्वभाव होता है, उस व्यक्ति को उसी तरह के व्यक्तित्व वाला इंसान पसंद आता है।
मैं मैं बड़ी बलाय है, सकै तो निकसी भागि।
कब लग राखौं हे सखी, रूई लपेटी आगि॥
दोहे का अर्थ: ‘मैं’ अर्थात अहंकार एक बड़ी मुसीबत और अगर सके तो हमें अपने मैं रूपी इस अहंकार से निकल कर भाग जाना चाहिए। ये अहंकार एक रुई में लपेटे हुए आग के समान है तो इस आग को आखिर कब तक अपने पास रख सकते हैं ? अतः इस अहंकार से जितनी जल्दी निकल कर भाग सकते हैं, हमें भाग निकलना चाहिए।
हिरदा भीतर आरसी मुख देखा नहीं जाई ।
मुख तो तौ परि देखिए जे मन की दुविधा जाई ॥
दोहे का अर्थ: हमारे ह्रदय के अंदर ही दर्पण है परन्तु इस दर्पण में मन की मलिनता के कारण, हमें अपने मुख या यूँ कहें की स्वरुप दिखाई ही नहीं देता। मन के दर्पण में अपना मुख अथवा अपना वास्तविक स्वरूप तभी दिखाई देता है जब आप के मन की मलिनता और मन का संसय मिट जाए। और इसलिए जिसके मन का संसय मिट गया है वो अपने हृदय के भीतर ही झाँककर अपने मुख और अपने स्वरूप को देख सकता है।
कबीर सो धन संचिए जो आगे कूं होइ।
सीस चढ़ाए पोटली, ले जात न देख्या कोइ ॥
दोहे का अर्थ: हम में से ज्यादातर लोग इसी जद्दोजहद में अपना जीवन बिता देते हैं ताकि हम अधिक से अधिक धन संचय कर पाएं। हालांकि रुपए, पैसे, धन, दौलत सब कुछ जरुरी है। पर कबीर दास जी अपने इस दोहे में बताते हैं कि हमें किस तरह का धन संचय करना चाहिए। क्या भौतिक धन रुपया, पैसा ही असली धन है? कबीर के अनुसार नहीं। और इसलिए वो कहते हैं कि माथे पर धन दौलत लेकर जाते किसी को नहीं देखा और इसलिए ऐसा धन भी संचय करो जो आगे काम आ सके। अर्थात ऐसे कर्म और कीर्ति जो भले आप अपने सर पर पोटली में बांध कर ना ले जा सके, लेकिन फिर भी वो आपके काम आ सके।
कबीर रेख सिन्दूर की काजल दिया न जाई।
नैनूं रमैया रमि रहा दूजा कहां समाई ॥
दोहे का अर्थ: कबीर दास जी अपने इस दोहे में कहते हैं कि जहां सिन्दूर की रेखा है अर्थात जहाँ सिन्दूर लगया जाता है, वहीं काजल नहीं लगाया जा सकता। उसी तरह जब इन आँखों में स्वयं भगवान राम विराज रहे हैं तो वहां कोई अन्य कैसे निवास कर सकता है ?
सब धरती कागज करूँ, लेखनी सब वनराज ।
सात समुद्र की मसि करूँ, गुरु गुण लिखा न जाए ।।
दोहे का अर्थ: संत कबीर दास जी के इस दोहे में गुरु के गुण की चर्चा है। संत कहते हैं गुरु के गुणों की व्याख्या लिखना असंभव है। “सब धरती कागज करूँ, लेखनी सब वनराज, सात समुद्र की मसि करूँ, गुरु गुण लिखा न जाए ” की अगर मैं इस पूरी धरती के बराबर एक बड़ा कागज बनाऊं, और दुनियां के सभी वृक्षों की कलम बना लूँ, और सातों समुद्रों के बराबर स्याही बना लूँ फिर भी गुरु के गुणों को लिखा नहीं जा सकता है।
हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना।
आपस में दोउ लड़ी-लड़ी मुए, मरम न कोउ जाना।।
दोहे का अर्थ: जैसा की आप जानते हैं कबीर दास जी किसी धर्म विशेष को नहीं मानते थे, और वो धर्म को अलग नजरिये से देखते थे। कबीर के इस दोहे में वो कहते हैं कि हिंदू को राम प्यारे हैं, और तुर्क यानि मुस्लिम को रहमान प्यारा है। और इसी बात पर दोनों आपस में लड़-लड़के मर रहे हैं, लेकिन तब भी दोनों में से कोई राम और रहमान के सच को न जान पाया।
मन के हारे हार है मन के जीते जीत।
कहे कबीर हरि पाइए मन ही की परतीत॥
दोहे का अर्थ: कहतें हैं की युद्ध सिर्फ रणभूमि में नहीं लड़ी जाती, एक युद्ध तो इंसान के भीतर उसके मन में भी चलता रहता है। और रणभूमि में जीतने से पहले इंसान को अपने मन की युद्ध में विजयी होना होता है। कबीर दास जी ये दोहा मेरे पंसंदीदा दोहों में से एक है। कबीर दास जी कहते है की जय और पराजय, जीत और हार मन से तय होती है। जब इंसान मन में हार जाता है तो उसका पराजय होता है और अगर मन में जीत लिया तो उसकी जीत होती है। ठीक उसी तरह अगर आप मन से ईश्वर को पाना चाहते हैं और आप के में विश्वास है तो आप जरूर ईश्वर को प्राप्त कर सकते हैं, लेकिन अगर मन में विश्वाश नहीं तो फिर ईश्वर को कैसे पाएंगे ?
Final thoughts on Kabir Ke Dohe
कहते हैं अगर आपने कबीर दास के दोहे नहीं पढ़े, तो आपने साहित्य ही नहीं पढ़ा। अगर आपकी रूचि हिंदी में हैं, तो आपको कबीर दास जी को जरूर पढ़ना चाहिए। आज हमने कबीर दास जी के कुछ बेहतरीन और प्रसिद्ध दोहे पढ़े। और आप हमें बताइये की कबीर के दोहों में आपका सबसे पसंदीद दोहा कौन सा है ? हम, कबीर की अगली क़िस्त में कुछ और दोहे लेकर प्रस्तुत होंगे।